जहाँ सुबहें चुपके से उतरती थीं पीपल की शाखों पर,
और गौरैयों की चहचहाहट से
नींद खुद दरवाज़ा खटखटाती थी।
बाँस की खपच्चियों से छनती धूप,
दीवारों पर कविता सी उतरती थी।
पगडंडियाँ थीं मिट्टी की —
नंगे पाँव चलने को कहानियाँ सुनाती हुई।
तालाब के पास बैठ
मैं सर्द हवा में डुबोता था उँगलियाँ,
और देखता था सूरज को
जैसे वह मेरे नाम कोई पत्र छोड़ जाता हो।
अम्मा की हाँक,
दूर खेतों से लौटती गायों की थकान,
और ओस में भींगी तुलसी की पत्तियाँ—
सब कुछ कहता था,
यही है मेरा घर।
अब शहर में हूँ,
जहाँ हर परिंदा भी रास्ता भूल जाता है,
और नींद भी
घड़ी की सुइयों पर टिक-टिक करती है।
पर मन अब भी लौटता है
उसी गांव के चौक तक,
जहाँ चिड़ियाँ
मेरे आँगन को घर कहती थीं।
दलीप
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