(गांव, बचपन और छूटे हुए साथियों की याद में)
गांव तो वैसा ही था —
पगडंडियाँ, वही कुआँ, वही पीपल,
छांव अब भी मीठी थी,
पर वो दोस्त ना मिले...
गली में दौड़ते कंचों की झंकार,
नीम की डाली से झूलती खुशियाँ,
हर मोड़ पर एक किस्सा पिघलता मिला,
पर वो हँसी... वो ठहाके...
वो दोस्त ना मिले।
नहर किनारे पत्थर से नावें बनती थीं,
बरसात में मिट्टी के महल सजते थे,
अब नहर सूनी है, और महल भी ध्वस्त,
पर यादें अब भी गीली थीं,
फिर भी... वो दोस्त ना मिले।
एक छत थी जहाँ सारे जमा होते थे,
चोरी से अमरूद तोड़ते,
डाँट खाने के बाद भी मुस्कराते —
छत अब भी थी,
पर आंखें तलाशती रहीं...
और वो दोस्त ना मिले।
शायद बड़े हो गए हैं सब,
या वक्त की भीड़ में गुम,
मैं भी लौटा हूँ, पर अधूरा सा,
क्योंकि गांव तो मिला...
पर वो दोस्त ना मिले।
दलीप (दीप)
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