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गांव

 

गांव गम

गांव... अब भी सांस लेता है
मेरे मन की किसी भीतरी थकान में,
जैसे कोई धूप की सिलवटों में
पुरानी खुशबू बची रह गई हो।

कच्चे रास्ते, हल की धार,
पानी से भरी मटकी की झनझनाहट,
और दादी के गीतों में लिपटी
वो मिट्टी की ममता —
सब कुछ अब भी याद आता है।

अब शहर है,
पर गांव की खामोशी कहीं गूंजती है,
टिन की छत पर नहीं टपकती
वो बारिश जो कभी
कहानी हुआ करती थी।

वो पेड़, वो कुआँ,
वो संध्या की आरती की गूंज,
सब कुछ पीछे छूट गया —
पर मन वहीं अटका है।

गांव अब बस याद है —
पर उस याद में ही
सांस लेने का सुकून है।

दलीप सिंह 

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