बरखा बरसे, मन मुस्काए,
जग में खुशबू, सुख रस लाए।
लेकिन जब हो हद से ज़्यादा,
तब यह क़ुदरत कैसा सज़ा।
नदियाँ तोड़े अपना बाँध,
ग़म की लहरें फैलें साध।
घर उजड़े, गलियाँ डूबें,
सपने सारे पानी चूरें।
किसान के खेतों में सैल,
मेहनत का हर दाना फेल।
बरसात जो थी "रहमत-ए-रब",
बन बैठी है 'क़हर-ओ-अज़ब'।
इसलिए ऐ बादल सुन ले,
तेरा संतुलन ही गुण है।
बरखा बरसे मीत बनाकर,
ना कि दुख का बीज उगाकर।