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Monday, September 1, 2025

बारिश

बरखा बरसे, मन मुस्काए,
जग में खुशबू, सुख रस लाए।
लेकिन जब हो हद से ज़्यादा,
तब यह क़ुदरत कैसा सज़ा।

नदियाँ तोड़े अपना बाँध,
ग़म की लहरें फैलें साध।
घर उजड़े, गलियाँ डूबें,
सपने सारे पानी चूरें।

किसान के खेतों में सैल,
मेहनत का हर दाना फेल।
बरसात जो थी "रहमत-ए-रब",
बन बैठी है 'क़हर-ओ-अज़ब'।

इसलिए ऐ बादल सुन ले,
तेरा संतुलन ही गुण है।
बरखा बरसे मीत बनाकर,
ना कि दुख का बीज उगाकर।

Monday, June 23, 2025

कविता: समय की बहती रेत


वक़्त की मुट्ठी में थी जो रेत,
हर लम्हा सरकता गया चुपचाप।
हम देखते रहे, दिल में सैकड़ों सवाल,
और जवाब बना बस एक खामोश किताब।

कल की उम्मीदें, आज की खता बन गईं,
फुर्सतें कुछ पल की थी, रंजिशें सदा बन गईं।
हसरतों का ताज था जो सिर पे कभी,
अब गर्द-ए-हयात में खो गया बिन सबब कहीं।

हर लम्हा कहता रहा — थम जा ज़रा,
पर हमने सुना नहीं, चल पड़े बस यूँ ही फ़ना।
आँखों में जो ख्वाब थे, वो भी रेत बन गए,
हथेली पे रखे थे, वक्त के साथ बह गए।

कभी जो पल थे, इत्र जैसे महके थे,
अब वही यादें, बस ख़ामोशी में बहके हैं।
ज़िंदगी की किताब में ना कोई सिरे हैं,
हर पन्ना धुँधला, हर लफ्ज़ अधूरे हैं।

समय की ये बहती रेत कहती है हमसे —
"संभाल ले हर लम्हा, ये पल दोबारा न आएंगे,
जो आज ठहर के जी लिया,
वो कल की तस्वीरों में मुस्कराएंगे।"


दलीप सिंह

Sunday, June 22, 2025

कविता: "सफ़्हा खुला है आज का"


कविता: 
"सफ़्हा खुला है आज का"

सफ़्हा खुला है आज का, रंग भरो कुछ प्यार से,
लफ़्ज़ों की बारिश हो जाए, काग़ज़ भी मुस्काए।
कल की मीठी नींद से उठ, आज में सपना बो दो,
इक छोटा सा काम ही तो है, मुस्काकर बस कर लो।
ना तकरार कलम से हो, ना लड़ाई दवात से,
बस दिल की नर्मी भर दो तुम होमवर्क की बात से।
चलो चलें उस राह पर, जो रोशनी बन जाती है,
हर सवाल इक गीत लगे, जब कोशिश साथ निभाती है।

D.S.
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