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Monday, June 23, 2025

कविता: समय की बहती रेत


वक़्त की मुट्ठी में थी जो रेत,
हर लम्हा सरकता गया चुपचाप।
हम देखते रहे, दिल में सैकड़ों सवाल,
और जवाब बना बस एक खामोश किताब।

कल की उम्मीदें, आज की खता बन गईं,
फुर्सतें कुछ पल की थी, रंजिशें सदा बन गईं।
हसरतों का ताज था जो सिर पे कभी,
अब गर्द-ए-हयात में खो गया बिन सबब कहीं।

हर लम्हा कहता रहा — थम जा ज़रा,
पर हमने सुना नहीं, चल पड़े बस यूँ ही फ़ना।
आँखों में जो ख्वाब थे, वो भी रेत बन गए,
हथेली पे रखे थे, वक्त के साथ बह गए।

कभी जो पल थे, इत्र जैसे महके थे,
अब वही यादें, बस ख़ामोशी में बहके हैं।
ज़िंदगी की किताब में ना कोई सिरे हैं,
हर पन्ना धुँधला, हर लफ्ज़ अधूरे हैं।

समय की ये बहती रेत कहती है हमसे —
"संभाल ले हर लम्हा, ये पल दोबारा न आएंगे,
जो आज ठहर के जी लिया,
वो कल की तस्वीरों में मुस्कराएंगे।"


दलीप सिंह

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