लेखक-परिचय :- राहुल सांकृत्यायन जिन्हें महापंडित की उपाधि दी जाती है हिन्दी के एक प्रमुख साहित्यकार थे। वे एक प्रतिष्ठित
बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा
साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। वह हिंदी
यात्रासहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में
युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके
लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था। इसके अलावा
उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे
जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।
२१वीं सदी के इस दौर में जब संचार-क्रान्ति के साधनों ने
समग्र विश्व को एक ‘ग्लोबल विलेज’ में परिवर्तित कर दिया हो एवं इण्टरनेट द्वारा ज्ञान का
समूचा संसार क्षण भर में एक क्लिक पर सामने उपलब्ध हो, ऐसे में यह अनुमान लगाना कि कोई
व्यक्ति दुर्लभ ग्रन्थों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों व नदियों के बीच भटकने
के बाद, उन
ग्रन्थों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए, रोमांचक लगता है। पर ऐसे ही थे
भारतीय मनीषा के अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक, सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत, सार्वदेशिक दृष्टि एवं
घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के महान पुरूष राहुल सांकृत्यायन।
राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी
गतिशीलता रही है। घुमक्कड़ी उनके लिए वृत्ति नहीं वरन् धर्म था। आधुनिक हिन्दी
साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार के
रूप में जाने जाते है।
मौलिक
|
अनुवाद
|
·
'सतमी के बच्चे' (कहानी,
1939 ई.)
·
'जीने के लिए' (1940 ई.)
·
'सिंह सेनापति' (1944 ई.)
·
'जय यौधेय' (1944 ई.)
·
(कहानी संग्रह, 1944 ई.)
·
'मधुर स्वप्न' (1949 ई.)
·
'बहुरंगी मधुपुरी' (कहानी,
1953 ई.)
·
'विस्मृत यात्री' (1954 ई.)
·
'कनैला की कथा'
·
(कहानी, 1955-56 ई.)
·
'सप्तसिन्धु'
|
·
'शैतान की आँख' (1923 ई.)
·
'विस्मृति के गर्भ से' (1923 ई.)
·
'जादू का मुल्क' (1923 ई.)
·
'सोने की ढाल' (1938)
·
'दाखुन्दा' (1947 ई.)
·
'जो दास थे' (1947 ई.)
·
'अनाथ' (1948 ई.)
·
'अदीना' (1951 ई.)
·
'सूदख़ोर की मौत' (1951 ई.)
·
'शादी' (1952 ई.)
|
यात्रावृतांत
का सारांश :-
तिब्बत में जाति-पाँति का भेद-भाव नहीं है। औरतों के लिए परदा प्रथा नहीं है। भिखमंगों को छोड़कर अपरिचित भी घर के अंदर जा सकते हैं। घरों की सास-बहुएँ बिना संकोच के चाय बना लाती हैं। वहाँ चाय, मक्खन और सोडा-नमक मिलाकर तथा चोडगी में कूटकर मिट्टी के दाँतेदार बर्तन में परोसी जाती है। परित्यक्त चीनी किले से चलने पर एक आदमी लेखक से राहदारी माँगने आया। लेखक ने अपनी तथा सुमति की चिटें दिखा दीं। सुमति के परिचय से लेखक को थोडला के आखिरी गाँव में ठहरने के लिए उचित जगह मिल गई थी।
डाँड़ा तिब्बत के खतरनाक घने जंगलों एवं ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से भरे स्थान हैं। यह स्थान सोलह-सत्राह हशार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ दोनों तरफ मीलों तक कोई गाँव भी नहीं है। रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा तथा निर्जन है। यहाँ कोई भी आदमी दिखाई नहीं देता है। यहाँ डाकू निर्भय रहते हैं। यहाँ पुलिस के बंदोबस्त पर सरकार पैसा खर्च नहीं करती। यहाँ डाकू किसी की भी हत्या कर उसे लूट लेते हैं। डाकू यात्राी को पहले मार डालते हैं। यदि डाकू राही को न मारें तो राही उन्हें भी मार सकते हैं
कठिन शब्दों
के अर्थ :-
पलटन
– सेना , आबाद – बसा हुआ , अपरिचित – अनजान , भद्र –सभ्य , दुर्ग –किला ,
परित्यक्त – छोड़ा हुआ , राहदारी – रास्ते का डर , विकट – भयंकर , परवाह – चिंता ,
कंडे – उपले , गंडे –ताबीज
No comments:
Post a Comment